*परोमिता चौधरी, प्रोग्राम ऑफिसर, ओक फाउंडेशन और
*रेशल मेककी, कम्यूनिकेशन ऑफिसर, ओक फाउंडेशन
भारत के अनेक भागों में मानसिक बीमारियों से लोग डरते हैं- परिवार के सदस्य सोचते हैं कि मरीजों की देखभाल करने से उन पर वित्तीय बोझ पड़ेगा, चूंकि ऐसा माना जाता है कि मानसिक रोगी कभी कोई रोजगार नहीं कर सकते।
शंपा पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के पावलोव मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल के कैफेटेरिया में काम करती है। चा-घर (बांग्ला में) नाम के इस कैफेटेरिया में घुसते ही आपका स्वागत इतनी गर्मजोशी से किया जाएगा कि आपका ह्दय गदगद हो जाएगा। शंपा सहित यहां काम करने वाली छह महिलाएं उजली मुस्कान से आपका स्वागत करेंगी और भरपूर नाश्ता और गर्मागर्म चाय या कॉफी पिलाएंगी। हालांकि कुछ समय पहले तक ये महिलाएं परेशान हाल इसी अस्पताल में मरीजों के तौर पर भर्ती थीं।
भारत के ज्यादातर हिस्सों में मानसिक बीमारियां एक श्राप की तरह हैं। लोग घबराते हैं कि मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल कैसे की जाएगी। इन लोगों को बोझ समझा जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि मानसिक रूप से बीमार लोग कोई रोजगार नहीं कर सकते। यह भय मानसिक बीमारियों को एक कलंक बनाता है। रोगी के स्वस्थ होने के बावजूद परिवार के लोग उससे कोई नाता नहीं रखना चाहते। अंजली नामक संस्था मानसिक रोगियों के लिए काम करने वाले संगठनों में से एक है। यह उनके बीच काम करती है और मनोसामाजिक विकारों से ग्रस्त लोगों के अधिकारों के लिए जन समर्थन जुटाती है। कोलकाता के मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल्स के साथ काम करने के दौरान अंजली ने यह महसूस किया कि मरीज किस तरह अपने समुदायों से कट जाते हैं। उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास नहीं किया जाता।
अंजली के कर्मचारियों ने पश्चिम बंगाल के दो अस्पतालों- कोलकाता के पावलोव मेंटल हेल्थ हॉस्पिटल और मुर्शीदाबाद के बेहरामपुर हॉस्पिटल से बातचीत की। इसके बाद संस्था ने मरीजों के इलाज के तरीकों में विविधता लाने के लिए अस्पताल के साथ काम करना शुरू किया। इस तरह के इलाज में दवाएं देना शामिल नहीं था। आम तौर पर मरीज नए काम सीखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद होती है कि इसके जरिए वे आत्मनिर्भर बन सकते हैं, साथ ही परिवार की आय में योगदान दे सकते हैं। अंजली ने मरीजों को विभिन्न कलाएं, जैसे संगीत, चित्रकला और थियेटर सीखने का मौका दिया।
तीन वर्षों में अंजली ने दो अस्पतालों के साथ मिलकर कई माइक्रो इंटरप्राइज़ शुरू किए। पावलोव हॉस्पिटल में मिनी लॉन्ड्रेट (लॉन्ड्री), टाई एंड डाई यूनिट और कैफेटेरिया शुरू किया गया। बेहरामपुर हॉस्पिटल (मुर्शीदाबाद का जिला मुख्यालय) में डेलिकेट इंब्रॉयडरी यूनिट खोली गई। इन सभी इंटरप्राइज़ेज़ में ज्यादातर वही लोग काम कर रहे हैं, जो कभी अस्पताल में अपना इलाज करा रहे थे। हालांकि कैफेटेरिया में काम करने वाली कुछ महिलाएं अपने घर लौट चुकी हैं और कैफेटेरिया में काम करने के लिए रोजाना अपने घर से आती हैं (कई बार दो घंटे का सफर तय करके)।
इन माइक्रो इंटरप्राइज़ेज़ में काम करने वाले 50 से अधिक स्वयंसेवियों ने उम्मीद और जिजीविषा की कहानियां बुनी हैं। लोगों की अवहेलना, हिंसा, लांछन और अपमान सहने के बावजूद उनमें हिम्मत कायम है और इसी की वजह से वे दोबारा अपनी जिंदगी संवारने की कोशिश कर रहे हैं। शंपा को ही लीजिए। अपनी बेटी की कस्टडी पाने के लिए उसने लंबी अदालती लड़ाई लड़ी है। उसके पति ने यह कहकर शंपा को उसकी बेटी से अलग कर दिया था कि शंपा की ‘मानसिक स्थिति ठीक नहीं’ है।
इन माइक्रो इंटरप्राइज़ेज़ ने रूढ़ियां भी तोड़ी हैं। इनसे यह साबित हुआ है कि मानसिक बीमारियों के शिकार लोगों को निरर्थक और निकम्मा नहीं माना जाना चाहिए। यह भी कि मनोसामाजिक विकार से ग्रस्त महिलाएं भी काम कर सकती हैं, रोजगार कर सकती हैं।
समाज के कुछ तबकों में मनोसामाजिक विकार के शिकार लोगों को गंदा समझा जाता है। इसलिए यह देखने के बाद कि ये लोग कड़ी मेहनत करके अस्पताल के बिस्तर, पर्दों, कपड़ों वगैरह को साफ-सुथरा, क्रिस्प रखने की कोशिश कर रहे हैं, यह भ्रामक धारणा टूटती है। इसी सोच के कारण स्वस्थ होने के बावजूद लोगों को सम्मानजनक, उत्पादक जीवन से महरूम होना पड़ता है। माइक्रो इंटरप्राइज़ेज़ ने इस सोच को बदला है। यहां काम करने वाले लोग एक महीने में लगभग 15-16 दिन काम करते हैं और 8 घंटे काम करके करीब 5 US$ कमा लेते हैं।
चा-घर यह भी बताता है कि भूख की भाषा एक ही होती हैं और पकाने वाले की मेहनत ही `भोजन को स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाती है। आप उन लोगों के हाथों से पका और परोसा खाना भी खा सकते हैं जो कभी मानसिक बीमारियों का शिकार थे। यह भी कि हम सभी के अधिकार एक बराबर हैं- हम सभी को सम्मानजनक जीवन जीने का हक है। इस कैफेटेरिया में रोजाना करीब 200 ग्राहक आते हैं। इनमें अस्पताल के कर्मचारी, मरीज या मरीज के परिवार के सदस्य, सभी शामिल होते हैं। ग्राहक खुश होते हैं कि उन्हें अस्पताल के अंदर ही किफायती और पौष्टिक खाना मिल जाता है- शंपा और उसकी साथिनें खुश होती हैं क्योंकि अब उन्हें छोटे-मोटे खर्चे या अपने बच्चों को स्कूल भेजने लिए दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ते। चूंकि हर महीने कैफेटेरिया की कमाई 50 US$ के करीब है।
अंजली ने माइक्रो इंटरप्राइज़ शुरू करने का सुझाव दिया। अस्पताल प्रशासन ने इस सुझाव को माना और इस सपने को हकीकत में बदला। अब अस्पताल के मरीजों के लिए नई राह खुली है। इस पहल की कामयाबी से दूसरे भी प्रेरणा ले रहे हैं। कई अन्य जगहों पर ऐसी पहल की जा रही है। अंजली और दूसरी सरकारी संस्थाएं इसमें अपना सहयोग देने के लिए तैयार हैं। शंपा और उसकी साथिनें दूसरे मरीजों को प्रेरणा दे रही हैं जिन्होंने यह मान लिया था कि अस्पताल का वॉर्ड ही अब उनकी दुनिया है। इस बीच अंजली, अस्पताल और उसके स्वयंसेवी इस मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं। मिलजुलकर मरीजों के लिए ऐसी दुनिया रच रहे हैं जहां वे आजाद होकर सफल जिंदगी जी सकें। (UN India)
**निजता के लिए कुछ लोगों के नाम बदल दिए गए हैं और उनकी पहचान से जुड़े विवरण में परिवर्तन कर दिया गया है।